प्रस्तावना
उद्देशिका--2[भारत] के लिए एक साधारण दण्ड संहिता का उपबंध करना समीचीन है; अत: यह निम्नलिखित रूप में अधिनियमित किया जाता है :--
1. संहिता का नाम और उसके प्रवर्तन का विस्तार-- यह अधिनियम भारतीय दण्ड संहिता कहलाएगा, और इसका 3[विस्तार 4[जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय] सम्पूर्ण भारत पर होगा ] ।
2. भारत के भीतर किए गए अपराधों का दण्ड-- हर व्यक्ति इस संहिता के उपबन्धों के प्रतिकूल हर कार्य या लोप के लिए जिसका वह 5[भारत] 6।।। के भीतर दोषी होगा, इसी संहिता के अधीन दण्डनीय होगा अन्यथा नहीं ।
3. भारत से परे किए गए किन्तु उसके भीतर विधि के अनुसार विचारणीय अफराधों का दण्ड-- [भारत] से परे किए गए अपराध के लिए जो कोई व्यक्ति किसी 7[भारतीय विधि] के अनुसार विचारण का पात्र हो, 8[भारत] से परे किए गए किसी कार्य के लिए उससे इस संहिता के उपबन्धों के अनुसार ऐसा बरता जाएगा, मानो वह कार्य 5[भारत] के भीतर किया गया था ।
4. राज्यक्षेत्रातीत अपराधों पर संहिता का विस्तार-- इस संहिता के उपबंध-- 1 भारतीय दंड संहिता का विस्तार बरार विधि अधिनियम, 1941 (1941 का 4) द्वारा बरार पर किया गया है और इसे निम्नलिखित स्थानों पर प्रवॄत्त घोषित किया गया है :-- संथाल परगना व्यवस्थापन विनियम (1872 का 3) की धारा 3 द्वारा संथाल परगनों पर ; पंथ पिपलोदा, विधि विनियम, 1929 (1929 का 1) की धारा 2 तथा अनुसूची द्वारा पंथ पिपलोदा पर ; खोंडमल विधि विनियम, 1936 (1936 का 4) की धारा 3 और अनुसूची द्वारा खोंडमल जिले पर ; आंगूल विधि विनियम, 1936 (1936 का 5) की धारा 3 और अनुसूची द्वारा आंगूल जिले पर ; इसे अनुसूचित जिला अधिनियम, 1874 (1874 का 14) की धारा 3 (क) के अधीन निम्नलिखित जिलों में प्रवॄत्त घोषित किया गया है, अर्थात्:-- संयुक्त प्रान्त तराई जिले--देखिए भारत का राजपत्र (अंग्रेजी), 1876, भाग 1, पॄ0 505, हजारीबाग, लोहारदग्गा के जिले [(जो अब रांची जिले के नाम से ज्ञात हैं,--देखिए कलकत्ता राजपत्र (अंग्रेजी), 1899, भाग 1, पॄ0 44 और मानभूम और परगना] । दालभूम तथा सिंहभूम जिलों में कोलाहल--देखिए भारत का राजपत्र (अंग्रेजी), 1881, भाग 1, पॄ0 504 । उपरोक्त अधिनियम की धारा 5 के अधीन इसका विस्तार लुशाई पहाड़ियों पर किया गया है--देखिए भारत का राजपत्र (अंग्रेजी), 1898, भाग 2, पॄ0 345 । इस अधिनियम का विस्तार, गोवा, दमण तथा दीव पर 1962 के विनियम सं0 12 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा ; दादरा तथा नागार हवेली पर 1963 के विनियम सं0 6 की धारा 2 तथा अनुसूची 1 द्वारा ; पांडिचेरी पर 1963 के विनियम सं0 7 की धारा 3 और अऩुसूची 1 द्वारा और लकादीव, मिनिकोय और अमीनदीवी द्वीप पर 1965 के विनियम सं0 8 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा किया गया है । 2 “ब्रिटिश भारत” शब्द अनुक्रमशः भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के अधिनियम सं0 3 को धारा 3 और अनुसूची द्वारा प्रतिस्थापित किए गए हैं ।
3 मूल शब्दों का संशोधन अनुक्रमशः 1891 के अधिनियम सं0 12 की धारा 2 और अनुसूची 1, भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937, भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा किया गया है । 4 1951 के अधिनियम सं0 3 को धारा 3 और अनुसूची द्वारा “भाग ख राज्यों को छोड़कर” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
5 “उक्त राज्यक्षेत्र” मूल शब्दों का संशोधन अनुक्रमशः भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937, भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा किया गया है ।
6 1891 के अधिनियम सं0 12 की धारा 2 और अनुसूची 1 द्वारा “पर या 1861 की मई के उक्त प्रथम दिन के पश्चात्” शब्द और अंक निरसित।
7 भारतीय शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937 द्वारा “सपरिषद् भारत के गर्वनर जनरल द्वारा पारित विधि” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
8 “उक्त राज्यक्षेत्रों की सीमा” मूल शब्दों का संशोधन अनुक्रमशः भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937, भारतीय स्वतंत्रता (केन्द्रीय अधिनियम तथा अध्यादेश अनुकूलन) आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा किया गया है । 9 1898 का अधिनियम सं0 4 की धारा 2 द्वारा मूल धारा के स्थान पर प्रतिस्थापित । भारतीय दंड संहिता, 1860 2 1[(1) भारत के बाहर और परे किसी स्थान में भारत के किसी नागरिक द्वारा ; (2) भारत में रजिस्ट्रीकॄत किसी पोत या विमान पर, चाहे वह कहीं भी हो किसी व्यक्ति द्वारा, किए गए किसी अपराध को भी लागू है ।] स्पष्टीकरण--इस धारा में “अपराध” शब्द के अन्तर्गत 2[भारत] से बाहर किया गया ऐसा हर कार्य आता है, जो यदि 5[भारत] में किया जाता तो, इस संहिता के अधीन दंडनीय होता । 3[दृष्टांत ] 4।।। क. 5[जो 6[भारत का नागरिक है]] उगांडा में हत्या करता है । वह 5[भारत] के किसी स्थान में, जहां वह पाया जाए, हत्या के लिए विचारित और दोषसिद्द किया जा सकता है । 7। । । । । ।
5. कुछ विधियों पर इस अधिनियम द्वारा प्रभाव न डाला जाना-- इस अधिनियम में की कोई बात भारत सरकार की सेवा के आफिसरों, सैनिकों, नौसैनिकों या वायु सैनिकों द्वारा विद्रोह और अभित्यजन को दण्डित करने वाले किसी अधिनियम के उपबन्धों, या किसी विशेष या स्थानीय विधि के उपबन्धों, पर प्रभाव नहीं डालेगी ।] अध्याय 2 साधारण स्पष्टीकरण
6. संहिता में की परिभाषाओं का अपवादों के अध्यधीन समझा जाना-- इस संहिता में सर्वत्र, अपराध की हर परिभाषा, हर दण्ड उपबंध और हर ऐसी परिभाषा या दण्ड उपबंध का हर दृष्टांत, “साधारण अपवाद” शीर्षक वाले अध्याय में अन्तर्विष्ट अपवादों के अध्यधीन समझा जाएगा, चाहे उन अपवादों को ऐसी परिभाषा, दण्ड उपबंध या दृष्टांत में दुहराया न गया हो ।
दृष्टांत
(क) इस संहिता की वे धाराएं, जिनमें अपराधों की परिभाषाएं अन्तर्विष्ट हैं, यह अभिव्यक्त नहीं करती कि सात वर्ष से कम आयु का शिशु ऐसे अपराध नहीं कर सकता, किन्तु परिभाषाएं उस साधारण अपवाद के अध्यधीन समझी जानी हैं जिसमें यह उपबन्धित है कि कोई बात, जो सात वर्ष से कम आयु के शिशु द्वारा की जाती है, अपराध नहीं है ।
(ख) क, एक पुलिस आफिसर, वारण्ट के बिना, य को, जिसने हत्या की है, पकड़ लेता है । यहां क सदोष परिरोध के अपराध का दोषी नहीं है, क्योंकि वह य को पकड़ने के लिए विधि द्वारा आबद्ध था, और इसलिए यह मामला उस साधारण अपवाद के अन्तर्गत आ जाता है, जिसमें यह उपबन्धित है कि “कोई बात अपराध नहीं है जो किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा की जाए जो उसे करने के लिए विधि द्वारा आबद्ध हो ।
7. एक बार स्पष्टीकॄत पद का भाव-- हर पद, जिसका स्पष्टीकरण इस संहिता के किसी भाग में किया गया है, इस संहिता के हर भाग में उस स्पष्टीकरण के अनुरूप ही प्रयोग किया गया है ।
8. लिंग-- पुलिंग वाचक शब्द जहां प्रयोग किए गए हैं, वे हर व्यक्ति के बारे में लागू हैं, चाहे नर हो या नारी ।
9. वचन-- जब तक कि संदर्भ से तत्प्रतिकूल प्रतीत न हो, एकवचन द्योतक शब्दों के अन्तर्गत बहुवचन आता है, और बहुवचन द्योतक शब्दों के अन्तर्गत एकवचन आता है ।
10. “पुरुष”। “स्त्री”-- “पुरुष” शब्द किसी भी आयु के मानव नर का द्योतक है ; “स्त्री” शब्द किसी भी आयु की मानव नारी का द्योतक है ।
11. व्यक्ति-- कोई भी कपनी या संगम, या व्यक्ति निकाय चाहे वह निगमित हो या नहीं, “व्यक्ति” शब्द के अन्तर्गत आता है ।
12. लोक--
लोक का कोई भी वर्ग या कोई भी समुदाय “लोक” शब्द के अन्तर्गत आता है ।
1 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा मूल खण्ड (1) से खण्ड (4) के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
2 विधि अनुकूलन आदेश, 1948, विधि अनुकूलन आदेश, 1950 और 1951 के अधिनियम सं0 3 की धारा 3 और अनुसूची द्वारा
संशोधित होकर उपरोक्त रूप में आया ।
3 1957 के अधिनियम सं0 36 की धारा 3 और अनुसूची 2 द्वारा “दृष्टांत” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
4 1957 के अधिनियम सं0 36 की धारा 3 और अनुसूची 2 द्वारा “(क)” कोष्ठकों और अक्षर का लोप किया गया ।
5 विधि अनुकूलन आदेश, 1948 द्वारा “कोई कूली जो भारत का मूल नागरिक है ” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
6 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा “भारतीय अधिवास का कोई ब्रिटिश नागरिक” के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
7 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा दृष्टांत (ख), (ग) तथा (घ) का लोप किया गया ।
8 विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा मूल धारा के स्थान पर प्रतिस्थापित । भारतीय दंड संहिता, 1860 3
13. “क्वीन” की परिभाषा ।-- विधि अनुकूलन आदेश, 1950 द्वारा निरसित ।
14. “सरकार का सेवक”-- “सरकार का सेवक” शब्द सरकार के प्राधिकार के द्वारा या अधीन, भारत के भीतर उस रूप में बने रहने दिए गए, नियुक्त किए गए, या नियोजित किए गए किसी भी आफिसर या सेवक के द्योतक हैं ।]
15. “ब्रिटिश इण्डिया” की परिभाषा ।ट-- विधि अनुकूलन आदेश, 1937 द्वारा निरसित ।
16. “गवर्नमेंट आफ इण्डिया” की परिभाषा ।ट-- भारत शासन (भारतीय विधि अनुकूलन) आदेश, 1937 द्वारा निरसित ।
17. सरकार-- “सरकार” केन्द्रीय सरकार या किसी 2।।। राज्य की सरकार का द्योतक है ।]
18. भारत-- “भारत” से जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय भारत का राज्यक्षेत्र अभिप्रेत है ।]
19. न्यायाधीश--
“न्यायाधीश” शब्द न केवल हर ऐसे व्यक्ति का द्योतक है, जो पद रूप से न्यायाधीश अभिहित हो, किन्तु उस हर व्यक्ति का भी द्योतक है, जो किसी विधि कार्यवाही में, चाहे वह सिविल हो या दाण्डिक, अन्तिम निर्णय या ऐसा निर्णय, जो उसके विरुद्ध अपील न होने पर अन्तिम हो जाए या ऐसा निर्णय, जो किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा पुष्ट किए जाने पर अन्तिम हो जाए, देने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो, अथवा जो उस व्यक्ति निकाय में से एक हो, जो व्यक्ति निकाय ऐसा निर्णय देने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो । दृष्टांत
(क) सन् 1859 के अधिनियम 10 के अधीन किसी वाद में अधिकारिता का प्रयोग Eरने वाला कलक्टर न्यायाधीश है ।
(ख) किसी आरोप के संबंध में, जिसके लिए उसे जुर्माना या कारावास का दण्ड देने की शक्ति प्राप्त है, चाहे उसकी अपील होती हो या न होती हो, अधिकारिता का प्रयोग करने वाला मजिस्ट्रेट न्यायाधीश है ।
(ग) मद्रास संहिता के सन् 41816 के विनियम 7 के अधीन वादों का विचारण करने की और अवधारण करने की शक्ति रखने वाली पंचायत का सदस्य न्यायाधीश है ।
(घ) किसी आरोप के संबंध में, जिनके लिए उसे केवल अन्य न्यायालय को विचारणार्थ सुपुर्द करने की शक्ति प्राप्त है, अधिकारिता का प्रयोग करने वाला मजिस्ट्रेट न्यायाधीश नहीं है ।
20. न्यायालय--
“न्यायालय” शब्द उस न्यायाधीश का, जिसे अकेले ही को न्यायिकत: कार्य करने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो, या उस न्यायाधीश-निकाय का, जिसे एक निकाय के रूप में न्यायिकत: कार्य करने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो, जबकि ऐसा न्यायाधीश या न्यायाधीश-निकाय न्यायिकत: कार्य कर रहा हो, द्योतक है । दृष्टांत मद्रास संहिता के सन् 51816 के विनियम 7 के अधीन कार्य करने वाली पंचायत, जिसे वादों का विचारण
करने और अवधारण करने की शक्ति प्राप्त है, न्यायालय है ।
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